उत्तर -- अवश्य किया जा सकता है। परंतु जैसा कहा, साधु संग और सदा प्रार्थना करनी पड़ती है। उनके पास रोना चाहिए। मन का सभी मैल धुल जाने पर उनका दर्शन हो जाता है। मन मानो मिट्टी से लिपटी हुई एक लोहे की सुई है - ईश्वर है चुम्बक। मिट्टी रहते चुम्बक के साथ संयोग नहीं होता। रोते-रोते सुई की मिट्टी धुल जाती है। सुई की मिट्टी अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, पापबुद्धि, विषयबुद्धि, आदि। मिट्टी धूल जाने पर सुई को चुम्बक खींच लेगा अर्थात ईश्वर दर्शन होगा। चित्तशुद्धि होने पर ही उसकी प्राप्ति होती है। ज्वर चढ़ा है, शरीर मानो भुन रहा है, इसमें कुनैन से क्या काम होगा ?
संसार में ईश्वर-लाभ होगा क्यों नहीं ? वही साधु-संग, रो-रोकर प्रार्थना, बीच बीच में निर्जनवास ;
चारों ओर कटघरा लगाए बिना रास्ते के पौधों को गाय बकरियां खा जाती
हैं।
साधु संग करने पर एक और उपचार होता है -- सत् और असत् का विचार।
सत् नित्य पदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य। असत् पथ पर
मन जाते ही विचार करना पड़ता है। हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड
बढ़ाता है, तो उसी समय महावत उसे अंकुश मारता
है।
🌸जय ठाकुर जय भगवान🙏🏻