यदि हिंदू धर्म के दूत के रूप में उनका कुछ अपना होता, तो स्वामी विवेकानन्द, जो कुछ थे, उससे कम महान् सिद्ध हुए होते। गीता के कृष्ण की भांति, बुद्ध की भांति, शंकराचार्य की भांति, भारतीय चिन्तन के अन्य महान् विचारक की भांति, उनके वाक्य भी वेदों और उपनिषदों के उद्धरणों से परिपूर्ण हैं। भारत के पास जो उसकी अपनी ही निधियां सुरक्षित हैं, उन्हें भारत के लिए ही उनके उद्घाटक तथा भाष्यकार के रूप में ही स्वामीजी का महत्व है। यदि उन्होंने कभी जन्म लिया ही ना होता तो भी जिन सत्यों का उन्होंने उपदेश किया, वे वैसे ही सत्य बने रहते। यही नहीं, वे सत्य उतने ही प्राणामिक भी बने रहते। अन्तर केवल होता - उनकी ग्राहयता की कठिनाई में, उनकी अभिव्यक्ति में आधुनिकता, स्पष्टता और तीक्ष्णता के अभाव में; और उनके पारस्परिक सामंजस्य एवं एकता की हानि में। यदि वे न होते, तो आज हजारों लोगों को जीवनदायी सन्देश प्रदान करनेवाले वे ग्रन्थ विद्वानों के विवाद के विषय ही बने रह जाते। उन्होंने एक विद्वान की भांति नहीं, अपितु एक अधिकारी व्यक्ति की भांति उपदेश दिया। क्योंकि उन्होंने जिस सत्यानुभूती का उपदेश किया, उसकी गहराइयों में वे स्वयं ही गोता लगा चुके थे और रामानुज की भांति उसके रहस्यों को चांडालों, जाति से बहिष्कृतों तथा विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वापस लौटे थे।
किन्तु फिर भी यह कथन कि उनके उपदेशों में कुछ नवीनता नहीं है, पूर्णतः सत्य नहीं है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि स्वामी विवेकानन्द ने ही अद्वैत दर्शन की श्रेष्ठता की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह अनुभूति समाविष्ट है, जिसमें सब एक हैं, जो एकमेव - अद्वितीय है; परन्तु साथ ही उन्होंने हिन्दू धर्म में यह सिद्धान्त भी संयोजित किया कि द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अद्वैत ही अन्तिम लक्ष्य है। यह एक और भी महान् तथा अधिक सरल, इस सिद्धान्त का अंग है कि ' अनेक ' और ' एक ', विभिन्न समयों पर, विभिन्न वृत्तियों में, मन के द्वारा देखा जाने वाला एक ही तत्व है; अथवा जैसा कि श्रीरामकृष्ण ने उसी सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया है, ' ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार, दोनों समाविष्ट हैं। '
यही, वह वस्तु है, जो हमारे गुरुदेव के जीवन को सर्वोच्च महत्ता प्रदान करती है, क्योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं, भूत और भविष्य के भी संगम - बिन्दु बन जाते हैं। यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, अपितु सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के भी सभी प्रकार, सृजन के भी सभी प्रकार, सत्य - साक्षात्कार के विभिन्न मार्ग हैं। अतः इसके बाद से अब, लौकिक और धार्मिक के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग है। स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना भी उतना ही कठोर कर्तव्य है, जितना कि त्याग करना और विरत होना।
स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति उन्हें उस कर्म का महान् उपदेष्टा सिद्ध करती है, जो ज्ञान तथा भक्ति से भिन्न नहीं, बल्कि उन्हीं को अभिव्यक्त करने वाला है। उनके लिए कारखाना, अध्ययनशाला, खेत और क्रीड़ाभूमि आदि भगवत् - साक्षात्कार के उतने ही उत्तम और योग्य स्थान हैं, जितने कि साधु की कुटिया अथवा मन्दिर का द्वार। उनके लिए मानव की सेवा तथा ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा; और सच्चे नैतिक बल तथा आध्यात्मिकता में कोई अन्तर नहीं है। एक दृष्टि से उनकी सम्पूर्ण वाणी को इसी केन्द्रीय दृष्टिकोण के भाष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक बार उन्होंने कहा था, ' कला, विज्ञान तथा धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के तीन माध्यम हैं। लेकिन इसे समझने के लिए निश्चित ही हमें अद्वैत का सिद्धान्त चाहिए। '
भगिनी निवेदिता