ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे। अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः॥ ॐ नमः श्री भगवते रामकृष्णाय नमो नमः॥ ॐ नमः श्री भगवते रामकृष्णाय नमो नमः॥ ॐ नमः श्री भगवते रामकृष्णाय नमो नमः॥

Monday, April 27, 2020

आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय एवम जयंती


शंकराचार्य जी को,आदिशंकराचार्य भी कहा जाता है आप साक्षात् भगवान शिव के अवतार थे . आपने परमेश्वर के विभिन्न रूपों से लोगो को अवगत कराया जिसमे, आपने यह बताया कि,

  • ईश्वर क्या है ?
  • ईश्वर का जीवन मे महत्व क्या है ?

यह ही नही आपने अपने जीवनकाल मे, ऐसे कार्य किये जो बहुत ही सरहानीय है और भारत की, अमूल्य धरोहर के रूप मे आज भी है . आपने हिन्दू धर्म को बहुत ही खूबसूरती से एक अलग अंदाज मे निखारा, इसी के साथ अनेक भाषाओं मे, आपने अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया . आपने विभिन्न मठो की स्थापना की इसी के साथ कई शास्त्र, उपनिषद भी लिखे .

आदिशंकराचार्य जी का जीवन परिचय ( Shankaracharya history )

आदिशंकराचार्य जी साक्षात् भगवान का रूप थे . आप केरल के साधारण ब्राह्मण परिवार मे जन्मे थे . आपकी जन्म से आध्यात्मिक क्षेत्र मे रूचि रही है जिसके चलते, सांसारिक जीवन से कोई मोह नही था . आपको गीता,उपन्यास, उपनिषद् , वेदों और शास्त्रों का स्वज्ञान प्राप्त था, जिसे आपने पूरे विश्व मे फैलाया.

आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय ( Adi Shankaracharya biography in hindi)

जन्म788 ई.
मृत्यु820 ई.
जन्मस्थानकेरल के कलादी ग्राम मे
पिताश्री शिवागुरू
माताश्रीमति अर्याम्बा
जातिनाबूदरी ब्राह्मण
धर्महिन्दू
राष्ट्रीयताभारतीय
भाषासंस्कृत,हिन्दी
गुरुगोविंदाभागवात्पद
प्रमुख उपन्यासअद्वैत वेदांत

शंकराचार्य जी की जन्म व मृत्यु (shankaracharya Birth & Death)

जन्म- आदिशंकराचार्य जी का जन्म 788 ई. मे, केरल के एक छोटे से, गाव कलादी मे हुआ था. शंकराचार्य जी के जन्म की एक छोटी सी कथा है जिसके अनुसार, शंकराचार्य के माता-पिता बहुत समय तक निसंतान थे . कड़ी तपस्या के बाद, माता अर्याम्बा को स्वप्न मे भगवान शिव ने, दर्शन दिये और कहा कि, उनके पहले पुत्र के रूप मे वह स्वयं अवतारित होंगे परन्तु, उनकी आयु बहुत ही कम होगी और, शीघ्र ही वे देव लोक गमन कर लेंगे . शंकराचार्यजी जन्म से बिल्कुल अलग थे, आप स्वभाव मे शांत और गंभीर थे . जो कुछ भी सुनते थे या पढ़ते थे, एक बार मे समझ लेते थे और अपने मस्तिष्क मे बिठा लेते थे . शंकराचार्य जी ने स्थानीय गुरुकुल से सभी वेदों और लगभग छ: से अधिक वेदांतो मे महारथ हासिल कर ली थी . समय के साथ यह ज्ञान अथा होता चला गया और आपने स्वयं ने अपने इस ज्ञान को, बहुत तरह से जैसे- उपदेशो के माध्यम के, अलग-अलग मठों की स्थापना करके, ग्रन्थ लिख कर कई सन्देश लोगो तक पहुचाया. आपने सर्वप्रथम योग का महत्व बताया, आपने ईश्वर से जुड़ने के तरीको का वर्णन और महत्व बताया . आपने स्वयं ने विविध सम्प्रदायों को समझा उसका अध्ययन कर लोगो को उससे अवगत कराया .

मृत्यु- 820 ई मे आपका देव लोक गमन हो गया था , अर्थात् मात्र बत्तीस वर्ष आपने, इस संसार के साथ व्यतीत करके उसे धन्य कर दिया .

जीवनशैली

जन्म से ही आदिशंकराचार्य जी जीवन शैली कुछ भिन्न थी . शंकराचार्य जी ने वेद-वेदांतो के इस ज्ञान को भारत के चारों कोनो मे फैलाया . उनका उद्देश्य प्रभु की दिव्यता से लोगो को अवगत कराना अद्वैत कहावत के अनुसार ब्रह्म सर्वत्र है या स्व ब्रह्म है अर्थात् ब्रह्म का मै और मै कौन हू ? का सिद्धांत शंकराचार्य द्वारा प्रचारित किया गया . इसी के साथ शिव की शक्ति और उसकी दिव्यता बताई गई . शंकराचार्य द्वारा कथित तथ्य और सिद्धांत जिसमे सांसारिक और दिव्य अनुभव दोनों का बेजोड़ मिलन है, जो कही देखने को नही मिलता है . शंकराचार्य ने कभी किसी देवता के महत्व को कम नही किया ना ही उनकी बाहुल्यता को कम किया . इन्होंने अपने जीवनशैली के माध्यम से लोगो जीवन के तीन वास्तविक स्तरों से अवगत कराया .

तीन वास्तविक स्तर

shankaracharya


  1. प्रभु – यहा ब्रह्मा,विष्णु, और महेश की शक्तियों का वर्णन किया गया था .
  2. प्राणी – मनुष्य की स्वयं की आत्मा – मन का महत्व बताया है .
  3. अन्य – संसार के अन्य प्राणी अर्थात् जीव-जन्तु, पेड़-पौधे और प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन और महत्व बताया है .

इस प्रकार इन तीन को मिला कर, उनके साथ भक्ति,योग, और कर्म को जोड़ दिया जाये तो जो, आनंद प्राप्त होता है वो, बहुत ही सुखद होता है . इसी तरह का जीवन स्वयं व्यतीत कर, अपनी ख्याति सर्वत्र फैलाते थे .

कार्यकाल

आदिशंकराचार्य जी ने बहुत कम उम्र मे, तथा बहुत कम समय मे अपने कार्य के माध्यम से, अपने जीवन के उद्देश्य को पूर्ण किया . आपके जीवन के बारे मे यहा तक कहा गया है कि आपने महज दो से तीन वर्ष की आयु मे सभी शास्त्रों , वेदों को कंठस्थ कर लिया था . इसी के साथ इतनी कम आयु मे, भारतदर्शन कर उसे समझा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज को एकता के अटूट धागे मे पिरोने का अथक प्रयास किया और बहुत हद तक सफलता भी प्राप्त की जिसका जीवित उदहारण उन्होंने स्वयं सभी के सामने रखा और वह था कि आपने सर्वप्रथम चार अलग-अलग मठो की स्थापना कर उनको उनके उद्देश्य से अवगत कराया . इसी कारण आपको जगतगुरु के नाम से नवाज़ा गया और आप चारो मठो के प्रमुख्य गुरु के रूप मे पूजे जाते है .

शंकराचार्य चार मठो के नाम (shankaracharya math Name)

shankaracharya math

  1. वेदान्त मठ – जिसे वेदान्त ज्ञानमठ भी कहा जाता है जोकि, सबसे पहला मठ था और इसे , श्रंगेरी रामेश्वर अर्थात् दक्षिण भारत मे, स्थापित किया गया .
  2. गोवर्धन मठ – गोवर्धन मठ जोकि, दूसरा मठ था जिसे जगन्नाथपुरी अर्थात् पूर्वी भारत मे, स्थापित किया गया .
  3. शारदा मठ – जिसे शारदा या कलिका मठ भी कहा जाता है जोकि, तीसरा मठ था जिसे, द्वारकाधीश अर्थात् पश्चिम भारत मे, स्थापित किया गया .
  4. ज्योतिपीठ मठ – ज्योतिपीठ मठ जिसे बदरिकाश्रम भी कहा जाता है जोकि, चौथा और अंतिम मठ था जिसे, बद्रीनाथ अर्थात् उत्तर भारत मे, स्थापित किया गया .

इस तरह आदिशंकराचार्य जी ने, भारत भ्रमण कर इन मठो की, स्थापना कर चारो ओर, हिन्दुओ का परचम लहराया .

प्रमुख्य ग्रन्थ – आदिशंकराचार्य जी ने हिन्दी,संस्कृत जैसी भाषओं का प्रयोग कर दस से अधिक उपनिषदों , अनेक शास्त्रों, गीता पर संस्करण और अनेक उपदेशो को , लिखित व मौखिक लोगो तक पहुचाया . आपने अपने जीवन मे, कुछ ऐसे कार्यो की शुरूवात कि, जो उससे पहले कभी नही हुई थी . आपने अपने जीवन मन , आत्मा और ईश्वर को बहुत खूबसूरती से, अपने जीवन मे जोड़ा और लोगो को, इनके मिलाप से होने वाले अनुभव से अवगत कराया .

प्रमुख सन्देश  

आदिशंकराचार्य जी ने तो अपने जीवनकाल मे इतना कुछ लिखा और बहुत अच्छे सन्देश दिये है जिसे हर कोई गंभीरता से सोंचे और अपने जीवन में उतारे तो यह जीवन धन्य हो जायेगा . वैसे आपके उपर कई लेख, और पुस्तके लिखी भी गई है . हम अपने इस संस्करण मे आफ्ही के द्वारा कथित कुछ महत्वपूर्ण सन्देश लोगो तक पंहुचा रहे है .

शंकराचार्यजी द्वारा अनमोल वचन (Shankaracharya quotes )

shankaracharya quotes



Tuesday, April 21, 2020

स्वामी विवेकानन्द और उनका सन्देश


यदि हिंदू धर्म के दूत के रूप में उनका कुछ अपना होता, तो स्वामी विवेकानन्द, जो कुछ थे, उससे कम महान् सिद्ध हुए होते। गीता के कृष्ण की भांति, बुद्ध की भांति, शंकराचार्य की भांति, भारतीय चिन्तन के अन्य महान् विचारक की भांति, उनके वाक्य भी वेदों और उपनिषदों के उद्धरणों से परिपूर्ण हैं। भारत के पास जो उसकी अपनी ही निधियां सुरक्षित हैं, उन्हें भारत के लिए ही उनके उद्घाटक तथा भाष्यकार के रूप में ही स्वामीजी का महत्व है। यदि उन्होंने कभी जन्म लिया ही ना होता तो भी जिन सत्यों का उन्होंने उपदेश किया, वे वैसे ही सत्य बने रहते। यही नहीं, वे सत्य उतने ही प्राणामिक भी बने रहते। अन्तर केवल होता - उनकी ग्राहयता की कठिनाई में, उनकी अभिव्यक्ति में आधुनिकता, स्पष्टता और तीक्ष्णता के अभाव में; और उनके पारस्परिक सामंजस्य एवं एकता की हानि में। यदि वे न होते, तो आज हजारों लोगों को जीवनदायी सन्देश प्रदान करनेवाले वे ग्रन्थ विद्वानों के विवाद के विषय ही बने रह जाते। उन्होंने एक विद्वान की भांति नहीं, अपितु एक अधिकारी व्यक्ति की भांति उपदेश दिया। क्योंकि उन्होंने जिस सत्यानुभूती का उपदेश किया, उसकी गहराइयों में वे स्वयं ही गोता लगा चुके थे और रामानुज की भांति उसके रहस्यों को चांडालों, जाति से बहिष्कृतों तथा विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वापस लौटे थे।

किन्तु फिर भी यह कथन कि उनके उपदेशों में कुछ नवीनता नहीं है, पूर्णतः सत्य नहीं है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि स्वामी विवेकानन्द ने ही अद्वैत दर्शन की श्रेष्ठता की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह अनुभूति समाविष्ट है, जिसमें सब एक हैं, जो एकमेव - अद्वितीय है; परन्तु साथ ही उन्होंने हिन्दू धर्म में यह सिद्धान्त भी संयोजित किया कि द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अद्वैत ही अन्तिम लक्ष्य है। यह एक और भी महान् तथा अधिक सरल, इस सिद्धान्त का अंग है कि ' अनेक ' और ' एक ', विभिन्न समयों पर, विभिन्न वृत्तियों में, मन के द्वारा देखा जाने वाला एक ही तत्व है; अथवा जैसा कि श्रीरामकृष्ण ने उसी सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया है, ' ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार, दोनों समाविष्ट हैं। '

यही, वह वस्तु है, जो हमारे गुरुदेव के जीवन को सर्वोच्च महत्ता प्रदान करती है, क्योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं, भूत और भविष्य के भी संगम - बिन्दु बन जाते हैं। यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, अपितु सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के भी सभी प्रकार, सृजन के भी सभी प्रकार, सत्य - साक्षात्कार के विभिन्न मार्ग हैं। अतः इसके बाद से अब, लौकिक और धार्मिक के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग है। स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना भी उतना ही कठोर कर्तव्य है, जितना कि त्याग करना और विरत होना।

स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति उन्हें उस कर्म का महान् उपदेष्टा सिद्ध करती है, जो ज्ञान तथा भक्ति से भिन्न नहीं, बल्कि उन्हीं को अभिव्यक्त करने वाला है। उनके लिए कारखाना, अध्ययनशाला, खेत और क्रीड़ाभूमि आदि भगवत् - साक्षात्कार के उतने ही उत्तम और योग्य स्थान हैं, जितने कि साधु की कुटिया अथवा मन्दिर का द्वार। उनके लिए मानव की सेवा तथा ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा; और सच्चे नैतिक बल तथा आध्यात्मिकता में कोई अन्तर नहीं है। एक दृष्टि से उनकी सम्पूर्ण वाणी को इसी केन्द्रीय दृष्टिकोण के भाष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक बार उन्होंने कहा था, ' कला, विज्ञान तथा धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के तीन माध्यम हैं। लेकिन इसे समझने के लिए निश्चित ही हमें अद्वैत का सिद्धान्त चाहिए। '

भगिनी निवेदिता

Friday, April 17, 2020

संसार में रहकर क्या भगवान को प्राप्त किया जा सकता है ?

उत्तर -- अवश्य किया जा सकता है। परंतु जैसा कहा, साधु संग और सदा प्रार्थना करनी पड़ती है। उनके पास रोना चाहिए। मन का सभी मैल धुल जाने पर उनका दर्शन हो जाता है। मन मानो मिट्टी से लिपटी हुई एक लोहे की सुई है - ईश्वर है चुम्बक। मिट्टी रहते चुम्बक के साथ संयोग नहीं होता। रोते-रोते सुई की मिट्टी धुल जाती है। सुई की मिट्टी अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, पापबुद्धि, विषयबुद्धि, आदि। मिट्टी धूल जाने पर सुई को चुम्बक खींच लेगा अर्थात ईश्वर दर्शन होगा। चित्तशुद्धि होने पर ही उसकी प्राप्ति होती है। ज्वर चढ़ा है, शरीर मानो भुन रहा है, इसमें कुनैन से क्या काम होगा ?

संसार में ईश्वर-लाभ होगा क्यों नहीं ? वही साधु-संग, रो-रोकर प्रार्थना, बीच बीच में निर्जनवास ; चारों ओर कटघरा लगाए बिना रास्ते के पौधों को गाय बकरियां खा जाती हैं।

साधु संग करने पर एक और उपचार होता है -- सत् और असत् का विचार। सत् नित्य पदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य। असत् पथ पर मन जाते ही विचार करना पड़ता है। हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड बढ़ाता है, तो उसी समय महावत उसे अंकुश मारता है।

🌸जय ठाकुर जय भगवान🙏🏻

The Light Movie : Swami Vivekananda


Tuesday, April 14, 2020

👉 मांस का मूल्य

मगध सम्राट् बिंन्दुसार ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा :- देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है...? मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोचमें पड़ गये। चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आद तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता.. शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है.....उसने मुस्कुराते हुऐ कहा :- राजन्... सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री आचार्य चाणक्य चुप रहे। सम्राट ने उससे पुछा : आप चुप क्यों हो? आपका इस बारे में क्या मत है? चाणक्य ने कहा : यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है...., एकदम गलत है, मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूँगा....रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था। चाणक्य ने द्वार खटखटाया....सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये प्रधानमंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा? प्रधानमंत्री ने कहा :-संध्या को महाराज एकाएक बीमार हो गए है उनकी हालत नाजूक है राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते है....आप महाराज के विश्वास पात्र सामन्त है। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूँ। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहे, ले सकते है। कहे तो लाख स्वर्ण मुद्राऐं दे सकता हूँ.....। यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फिका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राऐं किस काम की? उसने प्रधानमंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजोरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राऐं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें मुद्राऐं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी सभी सामन्तों, सेनाधिकारीयों के द्वार पर पहुँचे और सभी से राजा के लिऐ हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ....सभी ने अपने बचाव के लिऐ प्रधानमंत्री को दस हजार, एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख तक स्वर्ण मुद्राऐं दे दी। इस प्रकार करोडो स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधानमंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुँच गऐ और समय पर राजसभा में प्रधानमंत्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राऐं रख दी....! सम्राट ने पूछा : यह सब क्या है....? यह मुद्राऐं किसलिऐ है? प्रधानमंत्री चाणक्य ने सारा हाल सुनाया और बोले: दो तोला मांस खरिदने के लिए इतनी धनराशी इक्कट्ठी हो गई फिर भी दो तोला मांस नही मिला। अपनी जान बचाने के लिऐ सामन्तों ने ये मुद्राऐं दी है। राजन अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है....?? 

जीवन अमूल्य है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को प्यारी होती है..! इस धरती पर हर किसी को स्वेछा से जीने का अधिकार है... 🦆 🦐

Monday, April 13, 2020

गीता समझना है तो.... - विवेकानंद


एक दिन एक युवक स्वामी विवेकानंद के पास आया।

उसने कहा- मैं आपसे गीता पढ़ना चाहता हूं। स्वामीजी ने युवक को ध्यान से देखा और कहा- 6 माह प्रतिदिन फुटबॉल खेलो,‍ फिर आओ, तब मैं गीता पढ़ाऊंगा। युवक आश्चर्य में पड़ गया। गीताजी जैसे ‍पवित्र ग्रंथ के अध्ययन के बीच में यह फुटबॉल कहां से आ गया? इसका क्या काम? स्वामीजी उसको देख रहे थे। उसकी चकित अवस्था को देख स्वामीजी ने समझाया- बेटा! भगवद्गीता वीरों का शास्त्र है। एक सेनानी द्वारा एक महारथी को दिया गया दिव्य उपदेश है। अत: पहले शरीर का बल बढ़ाओ। शरीर स्वस्थ होगा तो समझ भी परिष्कृत होगी। गीताजी जैसा कठिन विषय आसानी से समझ सकोगे। जो शरीर को स्वस्थ नहीं रखता, सशक्त-सजग नहीं रख सकता अर्थात् जो शरीर को नहीं संभाल पाया, वह गीताजी के विचारों को, अध्यात्म को कैसे संभाल सकेगा। जीवन में कैसे उतार पाएगा? उसे पचाने के लिए स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन ही चाहिए।

 



Saturday, April 11, 2020

👉मन की स्थिति

मन जब जीवन संबंधी उच्च आदर्शों पर विचार नही कर सके तब समझाना चाहिए कि मस्तिष्क दुर्बल हो गया | जब मन की शक्ति नष्ट हो जाती है, चिंतन शक्ति जाती रहती है, तब वह छोटी सीमा के भीतर चक्कर लगाता रहता है | अतएव पहले इस स्थिति को बदलना होगा, कर्मी और वीर बनना होगा | तभी हम अपने उस असीम धन को पहचानेंगे, जो हमारे पूर्वज हमारे लिए छोड़ गए हैं, और जिसके लिए संसार हाथ बढ़ा रहा है | यह धन वितरित न किया गया तो संसार मर जाएगा | इसको बाहर निकाल लो और मुक्तहस्त से इसका दान करो | क्योंकि महाभारत प्रणेता व्यास जी ने कहा है – कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है | तप और कठिन योगों की साधना इस युग में नहीं होती | इस युग में दान देने अर्थात दूसरों की सहायता करने की विशेष आवश्यकता है | दान शब्द का क्या अर्थ है ? सब दानों में श्रेष्ठ है अध्यात्म दान, फिर है विद्यादान, फिर प्राण दान, भोजन कपडे का दान सबसे निकृष्ट दान है | जो अध्यात्म दान करते है, वे जीवन मरण के प्रवाह से आत्मा की रक्षा करते हैं | जो विद्यादान करते हैं, वे आंखे खोलकर अध्यात्म के पथ पर चलना सिखा देते हैं | दूसरे दान, यहाँ तक कि प्राण दान भी इसके समक्ष तुच्छ है |
अन्नदान हम लोगों ने बहुत किया है | हमारे जैसी दानशील जाति दूसरी नहीं | यहाँ तो अगर भिखारी के घर भी रोटी का एक टुकड़ा है, तो वह उसमें से आधा दान कर देगा | ऐसा दृश्य केवल भारत में ही देखा जा सकता है | हमारे यहाँ इस दान की कमी नहीं, किन्तु अब हमें विद्या दान और धर्म दान के लिए बढ़ना चाहिए | अगर हम हिम्मत न हारें, ह्रदय को दृढ कर लें और पूर्ण ईमानदारी के साथ काम में जुट जाएँ तो पच्चीस साल के भीतर सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा | किसी महान आदर्श को लेकर उसीके पीछे समस्त जीवन न्योछावर कर देना ही मुख्य है, अन्यथा इस क्षणभंगुर मानव जीवन का मूल्य ही क्या है ? 
🌷स्वामी विवेकानन्द🌷

Wednesday, April 8, 2020

श्री हनुमान जी जन्मोत्सव के दिन हनुमान जी का पुण्य दर्शन करें।


यह महावीर हनुमान जी का विग्रह श्रीमत स्वामी ब्रह्मानंद जी महाराज जो बेलूर मठ के प्रथम अध्यक्ष थे

 तथा भगवान रामकृष्ण परमहंस जी के मानस पुत्र थे उनके द्वारा वाराणसी अद्वैत आश्रम में स्थापित

 किया गया था। स्वामी ब्रह्मानंद जी के आदेश अनुसार आज भी बेलूर मठ के सभी केंद्रों में

 एकादशी के दिन राम नाम संकीर्तन होता है। महाराज को वाराणसी केंद्र में 

हनुमान जी के साक्षात दर्शन हुए थे। हनुमान जी श्री लाटू महाराज के 

इष्ट देव थेठीक इसी मंदिर के ऊपर वाराणसी अद्वैत आश्रम में

 लाटू बाबा का शयन कक्ष भी है।आज श्री हनुमान जी

 जन्मोत्सव के दिन हनुमान जी का पुण्य दर्शन करें।

जय हनुमान 

जय ठाकुर

जय माँ

जय स्वामीजी महाराज


Tuesday, April 7, 2020

👉 हृदय में सहानुभूति होनी चाहिये


तुम चाहे हजारों समितियाँ गठित करो,या बीस हजार राजनैतिक सम्मेलन करो, या फिर पचास हजार संस्थाएँ गढ़ डालो; परन्तु तब तक इन सबका कोई फल होगा, जब तक कि तुम्हारे हृदय में सबका ध्यान रखने वाली उस सहानुभूति और उस प्रेम का उदय नहीं होता, जब तक भारत को एक बार फिर बुद्ध का हृदय प्राप्त नहीं हो जाता और जब तक भगवान कृष्ण की वाणी को व्यावहारिक जीवन में नहीं अपनाया जाता, तब तक हमारे लिए कोई आशा नहीं है। तुम लोग यूरोपवासियों तथा उनकी सभासमितियों का अनुकरण करते रहते हो, परन्तु मैं तुम्हें एक घटना बताता हूँ, एक ऐसी घटना जिसे मैंने अपनी आँखों से देखी है। यहाँ के कुछ लोग बर्मी लोगों की एक टोली को लन्दन ले गये। बाद में पता चला कि वे ले जाने वाले लोग यूरेशियन थे वहाँ उन्होंने इन लोगों की एक प्रदर्शनी लगाकर खूब धन कमाया और अन्त में सारा धन आपस में बाँटकर उन लोगों ने बर्मी लोगों को यूरोप के किसी अन्य देश में ले जाकर छोड़ दिया। वे बेचारे यूरोप की किसी भाषा का एक शब्द भी नहीं जानते थे। लेकिन आस्ट्रिया के अंग्रेज वाणिज्य-दूत ने उन्हें लन्दन भेज दिया। वे लोग लन्दन में भी किसी को नहीं जानते थे, अत: वहाँ पहुँचकर असहाय अवस्था में पड़ गये। एक अंग्रेज महिला को इनकी सूचना मिली। वे बर्मा के इन विदेशियों को अपने घर ले गयीं और अपने कपड़े, अपना बिस्तर तथा जो भी आवश्यक था, सब उपलब्ध कराया; और सारी बातें लिखकर समाचार-पत्रों में भेज दीं। इसका अद्भुत फल हुआ ! अगले दिन पूरा देश इस विषय में सचेत हो गया। चारों ओर से आर्थिक सहायता आने लगी और इस सहयोग के फलस्वरूप उन सभी को बर्मा वापस भेज दिया गया। उनकी सभी राजनीतिक और अन्य सभा-समितियाँ इसी तरह की सहानुभूति पर प्रतिष्ठित हैं; वे कम-से-कम अपने लोगों के लिए प्रेम की सुदृढ़ नींव पर खड़ी हैं। वे लोग सारी दुनिया से भले प्रेम करें और बर्मी लोग भले ही उनके शत्रु हों; परन्तु इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इंग्लैंड में उनकी अपनी जनता के प्रति उनमें अगाध प्रेम है और वे अपने द्वार पर आये हए विदेशियों के साथ भी सत्य, न्याय और दयापूर्ण व्यवहार करते हैं। पश्चिमी देशों के सभी स्थानों पर जिस आत्मीयता के साथ मेरा स्वागत-सत्कार किया गया, उसका यदि मैं उल्लेख करूँ तो यह मेरी अकृतज्ञता होगी। हमारे यहाँ वह हृदय कहाँ है, जिसकी बुनियाद पर राष्ट्र-रूपी दीवार खड़ी की जाय? हम पाँच लोग मिलकर एक छोटी-सी सम्मिलित पूँजी की कम्पनी खोलते हैं और कुछ दिनों के भीतर ही हम एक-दूसरे को धोखा देना शुरू कर देते हैं। इसके फलस्वरूप पूरा कारोबार ही नष्ट हो जाता है। तुम लोग अंग्रेजों के अनुकरण की बात कहते हो और उन्हीं के समान एक विशाल राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हो, परन्तु तुम्हारे पास नींव कहाँ है? हमारी नींव बालू से बनी है, इसीलिए उस पर जो भी भवन खड़ा किया जाता है, वह थोड़े ही दिनों में गिरकर बिखर जाता है (/३१९-३२०)

विवेक ज्योति जनवरी २०१६ पृष्ठ -२७